Thackeray: फिल्म के बहाने ठाकरे-शिवसेना की इमेज चमकाने की कोशिश

बाला ठाकरे के जीवन पर आधारित फिल्म ठाकरे का आधा से ज्यादा हिस्सा ब्लैक एंड व्हाइट दिखाया गया है, लेकिन ठाकरे की इमेज पूरी फिल्म में व्हाइट ही दिखाई गई. फिल्म उन सभी सवालों का जवाब देती है, जिनसे बाल ठाकरे जीवनभर घिरे रहे. फिर चाहे वो लोकतंत्र में भरोसा न करने का उनका सिद्धांत हो, या फिर आपातकाल का समर्थन या फिर महाराष्ट्र में बाहरी लोगों पर बैन का सवाल.




फिल्म शुरू से ही यह तथ्य स्थापित कर देती है कि बाल ठाकरे को शिवसेना बनाने की जरूरत क्यों पड़ी? स्पष्ट तौर पर यह दिखाने की कोशिश की गई है कि जब बाल ठाकरे एक अखबार में मामूली कार्टूनिस्ट थे, तब मराठियों के साथ महाराष्ट्र में कितना अन्याय हो रहा था? इसके बाद मूवी में एक-एक कर बाल ठाकरे पर लगे आरोपों पर सफाई दी गई है. इसके बावजूद फिल्म के अंत में ठाकरे कठघरे में ही खड़े नजर आते हैं.

मूवी सिर्फ ठाकरे को एक हीरो या मराठियों का मसीहा के तौर पर पेश करती है. ये दर्शकों के लिए कोई नया तथ्य नहीं है, लेकिन इसकी कहानी कहने वाले संजय राउत इतने सख्त और दमदारी से ठाकरे की क्लीन इमेज पेश करेंगे, ये थिएटर में ही पता चलता है. पूरी फिल्म में ठाकरे के रूप में नवाजुद्दीन सिद्दीकी छाए रहते हैं, हर सीन में उनका स्टारडम दिखता है. वे कहीं कमजोर नहीं पड़े, चाहे बाबरी मस्जिद गिराने का आरोप हो या फिर दंगों में हाथ होने का.

नवाज की अदाकारी
नवाजुद्दीन सिद्दीकी अपने किरदार के साथ पूरा न्याय करते नजर आए हैं. उन्होंने ठाकरे के लहजे, हावभाव और उनके तल्ख अंदाज को पकड़ने की कोशिश की, जिसमें उनके प्रभावी संवाद चार चांद लगाने जैसे रहे, लेकिन हर समय एक सख्ती का आवरण ओढ़े रहना उनके जीवन के उस पक्ष को सामने नहीं ला पाता, जिसमें वे एक पिता, पति या कोमल ह्रदय वाले कलाकार भी हैं. अमृता राव को ठाकरे की पत्नी मीना ठाकरे के रूप में स्क्रीन पर जितना स्पेस मिला, उससे उन्होंने अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज कराई.



ठाकरे के बहाने से शिवसेना की भी इमेज पॉलिस करने की कोशिश की गई है. उन सब सवालों को जस्टिफाई किया गया है, जिनमें शिवसेना की कट्‌टर हिंदुत्व की छवि, गैर मराठियों पर गुंडागर्दी और राजनीतिक ध्रुवीकरण के आरोप लगते हैं. संभव है कि आने वाले लोकसभा चुनाव में महाराष्ट्र में शिवसेना को ‘ठाकरे’ के कारण राजनीतिक फायदा भी मिले.

दर्शक फिल्म के अंत में इसी निष्कर्ष पर पहुंचता है कि कहानी कहने वाला जबर्दस्ती छोटे-छोटे संवाद और दृश्यों के जरिए दर्शक से कुछ मनवाना चाहता है या फिर किसी आरोप में सफाई दी जा रही है. जाहिर है कि ठाकरे अपनी विचारधारा को लेकर काफी स्पष्ट थे, जो तमाम मीडिया इंटरव्यू में दिखता भी है, लेकिन उनके (ठाकरे ) बचाव में फिल्म जो तथ्य पेश करती है, वे कमजोर दिखते हैं. फिल्म स्पष्ट तौर पर अपने एजेंडा पर अंत तक कायम रहती है.



कहानी में क्या?
कहानी की बात करें तो ठाकरे के जीवन के उन सब पहलुओं को बारीकी से दिखाया गया, जो उनकी राजनीतिक विचारधारा को प्रभावित करते थे. कहीं-कहीं उनकी छवि इतनी उदार दिखाई गई कि वे एक मुस्लिम को अपने घर पर नवाज पढ़ने की इजाजत दे देते हैं, वहीं अगले ही सीन में यह घोषणा करते नजर आते हैं कि वे सिर्फ और सिर्फ हिंदुत्व के एजेंडे पर चुनाव लड़ेंगे. वे कहते हैं कि “लोगों के नपुंसक होने से अच्छा मेरे लोगों का गुंडा होना है. जब सिस्टम के शोषण के कारण लोगों की रीढ़ पि‍स गई थी, तब मैंने उन्हें सीधा खड़ा होना सिखाया.”

अपनी बात प्रभावी तरीके से कहने के लिए कैमरा वर्क और लाइटिंग का निर्देशक अभिजीत पानसे ने भरपूर दोहन किया. फिल्म उस बाल ठाकरे की एक गॉड फादर वाली इमेज दिखाती है, जिसके पास अपने ऊपर लगे हर आरोप का जवाब है.




यदि आप अन्याय के खिलाफ उठ खड़े होने वाले जरूरतमंदों के मसीहा वाले सिद्धांत को सिनेमाई तड़के के साथ देखना चाहते हैं तो ठाकरे आपके लिए है. फिल्म में नवाज के अलावा अन्य कोई किरदार उभरकर सामने नहीं आता, लेकिन आपको इंगेज बनाए रखने के लिए नवाज के अलावा किसी और की जरूरत भी नहीं पड़ेगी.

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