(एक दुर्घटना में दोनों हाथ गंवा देने वाली मालविका अय्यर ने इन्हीं हाथों के बूते पीएचडी पूरी की. अब वे मोटिवेशनल स्पीकर और फैशन मॉडल भी हैं. लोग पूछते हैं कि बिना उंगलियों के लिखने-पढ़ने का काम कैसे किया. वे अपने हाथों की ओर इशारा करते हुए कहती हैं- यही मेरी इकलौती और सबसे खास उंगली है, जिसने मुझे इस मुकाम तक पहुंचाया. पढ़िए, मालविका को.)
मेरा जन्म तमिलनाडु में हुआ. बचपन बीकानेर में बीता. जब तक सबकुछ सामान्य था, मैं भी आम बच्चों सी ही थी. खेलती-खाती और पढ़ाई करती. 13 साल की थी, तभी एक हादसे ने मेरी जिंदगी बदलकर रख दी. एक दिन खेलते हुए मैं घर से थोड़ी दूर चली गई. वहां एक बम पड़ा हुआ था. जैसे मेरा ही इंतजार कर रहा हो. वैसे खेलते हुए पहले कभी मैं कहीं इधर-उधर नहीं भटकती थी.
वो मई की दुपहरी थी, आसपास कोई नहीं था. बम इतना रंगीन और गोलमटोल लगा कि मैंने चट से उसे उठाकर रख लिया. घर पहुंचकर कोई काम कर रही थी. हथौड़े की जरूरत थी लेकिन वो नजर न आने पर बम की याद आई और मैंने उसका वही इस्तेमाल किया. वो ग्रेनेड था. मेरे हाथों में फट गया.
अब भी जहन में उसके बाद का वक्त जिंदा है. मैं पेन पकड़ना या अपने हाथों से खाने जैसे काम भी नहीं कर पाती थी. सीढ़ियां नहीं चढ़ पाती थीं क्योंकि पैर भी जख्मी थे. ऐसा लगता था कि मेरे पैर मेरे शरीर का हिस्सा नहीं है. मां ही मेरे सारे काम करती और मैं लगातार उनसे माफी मांगती रहती थी कि मेरे कारण वो इतनी तकलीफ में हैं.
18 महीने तक मेरे कई ऑपरेशन हुए. अब कुहनी से नीचे मेरे हाथ नहीं थे और बैसाखी के सहारे मैंने चलना शुरू कर दिया था. ये मेरे लिए उपलब्धि से कम नहीं था. डांस करना मेरा जुनून था लेकिन अब मेरा सारा ध्यान सिर्फ पढ़ाई पर था. एक्सिडेंट के कारण 9वीं की परीक्षाएं मैं नहीं दे सकी थी इसलिए 10वीं बोर्ड में बैठना तय किया. लिखने की प्रैक्टिस की और 10वीं में टॉप किया, तब तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने भी मुझे बधाई दी थी.
कॉलेज में पढ़ाई शुरू की तो पहले-पहल मेरा कोई दोस्त नहीं था. कोई या तो सहानुभूति से देखता या फिर दया से. मैं खुद अपने शरीर के साथ सहज नहीं थी और अपने-आप को छिपाने की कोशिश करती रहती. धीरे-धीरे समझ में आया कि मैं सहज हो जाऊं तो मेरा आसपास भी मुझे आसानी से स्वीकारेगा. हालांकि कई चीजें मेरे लिए मुश्किल थीं. मैं बिना दर्द के चल नहीं पाती थीं और दोस्तों के साथ किसी भी जगह आ-जा नहीं सकती थी. मैंने अपनी शारीरिक सीमाओं को समझा और उसके साथ ही दोस्ती की.
सोशल वर्क में मास्टर्स करते हुए अहसास हुआ कि मेरी तकलीफ कितनी कम है. मैंने इसी विषय पर बात शुरू की और एम.फिल. के बाद पीएचडी शुरू की. लगभग सालभर पहले मैंने अपनी पीएचडी पूरी की.
अब मैं नकली हाथ नहीं लगाती. इन्हीं हाथों के साथ बाहर आती-जाती और सारे काम करती हूं. पढ़ाई के दौरान ही अहसास हुआ कि मैं अफोर्ड कर सकती हूं लेकिन जिनके पास सुविधा नहीं है, बाहरी दुनिया उनके साथ कैसा व्यवहार करती होगी! तभी से मैंने इन्हीं हाथों के साथ सारे काम सीखना और करना शुरू किया.